Friday, 9 October 2015

वो छत पर खड़ी थी,

वो छत पर खड़ी थी,
बाल खुले और बिखरे
कभी मुँह इधर कभी उधर,
बार-बार सामने निहारती
दीन-दुनिया से बेख़बर,
मुझे बहुत दया आ रही थी..

इतनी कम उम्र में पागल होना,
पूरी ज़िन्दगी पड़ी है सामने,
क्या होगा..? कैसे होगा..?
मुझे उसके पिता की चिन्ता
सताने लगी..

बेचारा दिन रात मेहनत करके
परिवार पालता है, ऊपर से इस
पागल लड़की को कैसे सम्भालेगा..?

धीरे-धीरे पागलपन और बढ़
गया, अब तो वह मुंडेर पर
बैठ गई थी, मैं घबराया, मैंने
अपनी बिटिया को बुलाया और
अपनी चिन्ता से अवगत कराया..

बिटिया बोली "पापा वो
पागल नहीं है, वो तो
.
.
.
.
.
.
सैल्फ़ी ले रही है..!!"

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